अभिलेख (epigraphic)
⇰ अभिलेख इतिहास जानने के महत्वपूर्ण स्रोत है। यह तिथि युक्त होने की वजह से प्रमाणित होते हैं। इनमें किसी तरह के फेरबदल की संभावना बहुत कम होती है।
⇰ राजस्थान के प्रारंभिक लेख अधिकतर संस्कृत में है जबकि मध्यकाल में फारसी, उर्दू व राजस्थानी में भी लिखे गए।
⇰ शैली - गद्य पद्य
⇰ लिपि - महाजनी, हर्षकालीन, नागरी
⇰ अभिलेख राजाओं के वंश, उपाधियों, सामाजिक नियमों तथा आचार संहिता के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं। यह लेख शिलालेख स्तंभ लेख, मूर्ति लेख, गुफा लेख आदि के रूप में पत्थर, लकड़ी और धातुओं पर उत्कीर्ण किए गए हैं।
⇰ भारत के सबसे प्राचीन अभिलेख मौर्य काल से संबंधित है। राजस्थान से अब तक 162 से अधिक अभिलेख प्राप्त हो चुके हैं।
⇰ प्रशस्ति- यदि किसी अभिलेख में केवल मात्र किसी शासक की उपलब्धियों की यशोगाथा होती है तो उसे प्रशस्ति कहते हैं।
कुछ महत्वपूर्ण अभिलेख
⇰ बड़ली का शिलालेख (443 BC)-
अजमेर जिले के भिनाय तहसील स्थित बड़ली गांव से
डॉ गौरीशंकर हीराचंद ओझा द्वारा 1912 में प्राप्त किया गया है।
ब्राह्मी लिपि में लिखा गया है तथा अजमेर म्यूजियम में स्थित है। यहीं से 487 बीसी का पिपरवा शिलालेख भी पाया गया है। अभिलेख में मध्यमिका में जैन धर्म के प्रसार का उल्लेख मिलता है।
⇰ विराट नगर अभिलेख
(मौर्य काल)-
कैप्टन बर्ट 1837 ने जयपुर के बैराठ से खोजा।
भाब्रू एवं बैराठ, बौद्ध धर्म का तथा त्रिरत्न (बुद्ध, धम्म तथा संघ) में अशोक की आस्था का वर्णन किया गया है।
(कॉलेज व्याख्याता 2014)
⇰ घोसुंडी शिलालेख (द्वितीय सदी ईसवी पूर्व)
-
डॉक्टर डीआर भंडारकर द्वारा खोजा गया।
वैष्णव धर्म का प्राचीनतम शिलालेख।
पाराशरी के पुत्र तथा गज वंश के शासक सर्वतात द्वारा अश्वमेध यज्ञ एवं एक अन्य वाजपेई यज्ञ के बारे में लिखा है।
इसके अतिरिक्त पांचवी सदी के एक विष्णु मंदिर के निर्माण का उल्लेख भी यहां पर किया हुआ है। इस लेख का महत्व द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व में भागवत धर्म के प्रचार, संकर्षण तथा वासुदेव की मान्यता एवं अश्वमेध के प्रचलन से है। (RAS 2016)
⇰ बड़वा यूप लेख (238- 39 ईसवी (मोखरी राजा) -
बड़वा ग्राम कोटा से प्राप्त है।
कुल तीन यूपलेख है। मौखरी शासन के संबंध में वर्णन किया गया है। इनका प्रमुख व्यक्ति “बल” था। मौखरियों की एक नई शाखा का वर्णन इसमें किया गया है।
⇰ भ्रमर माता का लेख (
490 ईसवी) -
छोटी सादड़ी,
चित्तौड़गढ़।
शाक्त धर्म से प्रभावित शिलालेख
⇰ मंडोर का शिलालेख (685 इसवी) -
जोधपुर के पास मंडोर की पहाड़ी।
इसके माध्यम से क्षेत्र में सातवीं शताब्दी में शिव तथा विष्णु की पूजा का वर्णन किया गया है।
⇰
मिहिरभोज की ग्वालियर प्रशस्ति (880 ईसवी) -
प्रतिहार वंश की राजनैतिक उपलब्धियों तथा उनकी वंशावली को जानने का एक प्रमुख साधन है। यह एक तिथि विहीन स्तंभ लेख है।
⇰ नाथ प्रशस्ति एकलिंग जी (971 ईसवी) -
लकुलीश मंदिर, उदयपुर।
मेवाड के राजनैतिक तथा सांस्कृतिक इतिहास को जानने के लिए बड़े काम की है । इसमें बापा, गुहिल और नर वाहन जिसे राजाओं के गुणों और शौर्य का वर्णन किया गया है
⇰ हर्षनाथ मंदिर प्रशस्ति 973 ईसवी(
सीकर)-
यह शेखावाटी के प्रसिद्ध हर्षनाथ मंदिर की प्रशस्ति है। इसमें चौहानों के वंश क्रम तथा उनकी उपलब्धियों पर प्रकाश पड़ता है।
⇰ बिजोलिया लेख 1170 ई (
पार्श्वनाथ मंदि बिजोलिया, भीलवाड़ा)-
इस लेख में सांभर और अजमेर के चौहान वंश की सूची तथा उनकी उपलब्धियों की अच्छी जानकारी मिलती है। इसके अनुसार साम्भर झील का निर्माण चौहान वंश के शासक वासुदेव ने करवाया था। चौहानों को वत्सगोत्रीय ब्राह्मण बताया है।
⇰ चीरवे का अभिलेख 1273 ई (उदयपुर)-
प्रशस्तिकार -
रत्नप्रभसूरी
। शिल्पी -
देल्हण
। गुहिल वंशीय बापा के वंशज पदमसिंह, जेत्र सिंह, तेज सिंह और समर सिंह की उपलब्धियों का वर्णन है।इसमें मेवाड़ के शासकों के राज्य विस्तार और पड़ोसियों के दमन तथा जैन धर्म आचार्यों का वर्णन भी इसमें मिलता है।
(PATWAR- 2015)
⇰ अचलेश्वर लेख 1285 ई (सिरोही)- यह लेख आबू के अचलेश्वर मंदिर से प्राप्त हुआ है। संस्कृत भाषा के इस लेख में बापा से लेकर समर सिंह तक की वंशावली दी गई है।
⇰ रणकपुर प्रशस्ति 1436 ईसवी(पाली)- इससे हमें मेवाड़ के राजवंश का विस्तृत वर्णन मिलता है । इस प्रशस्ति में बप्पा एवं कालभोज को अलग-अलग व्यक्ति बताया गया है जो कि डॉक्टर ओझा के मत से विरोधाभास प्रकट करता है।
⇰ कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति 1460 ई-
(चित्तौड़गढ़) -
इसमें हमीर की विजय का वर्णन सबसे पहले किया गया है। इसके बाद कुंभा द्वारा मंडोर से हनुमान की मूर्ति को लाकर द्वार पर स्थापित करने का वर्णन किया गया है।
⇰ जगदीश मंदिर प्रशस्ति 1576 ई -
यह शिलालेख हल्दीघाटी युद्ध के 3 माह बाद 27 सितंबर, 1576 ई. के दिन महाराणा प्रताप द्वारा मुगल सेना को गोगुन्दा में परास्त करने के बारे में है।
⇰ राज प्रशस्ति 1676 ई-
राज प्रशस्ति कुल 25 काले रंग के पाषाण पर उत्कीर्ण है। यह पट्टियां नौ चौकी की पाल की ताको में राजसमंद झील के किनारे लगी हुई है।
इनमें से एक संगमरमर की चौकी भी लगी हुई है।
इसका रचयिता
रणछोड़
भट्ट
था जो तेलंग ब्राह्मण था।
(RPSC 2nd grade 2010)
राजसमंद झील का वर्णन इसमें राजसमुद्र के रूप में किया गया है। इसका निर्माण लोगों को दुष्काल के समय काम दिलवाने के लिए कराया गया था जिसमें कुल 14 वर्ष लगे थे।
तालाब के पूर्ण होने पर अंतिम महोत्सव विक्रम संवत 1732 माघ शुक्ल पूर्णिमा को मनाया गया था।प्रत्येक पट्टिका में देवताओं की स्तुति के साथ-साथ मेवाड़ राजवंश के शासकों की उपलब्धियों का उल्लेख किया गया है।
इस प्रशस्ति में बाप, कुंभा, सांगा तथा प्रताप जैसे महान शासकों की उपलब्धियों तथा उनके द्वारा किए गए युद्धों पर अच्छा प्रकाश डाला गया है।
Remaining notes Will be updated soon ...
ताम्रपत्र (Copper Plates)
⇎
दानपत्र का ऐतिहासिक साधनों में एक महत्वपूर्ण स्थान है। दान पत्रों को ताम्रपत्र भी कहा जाता है क्योंकि तांबे की चादरों को काम लिया गया है।
⇎ जब किसी शासक द्वारा अपने
सामंत
/
अधिकारी
/
ब्रा
ह्मण
/
भिक्षु
आदि को भूमिदान दिया जाता था तो उसका उल्लेख साक्ष्य के रूप में ताम्रपत्र में किया जाता था। भूमिदान की परंपरा सर्वप्रथम
सातवाहन शासकों
द्वारा शुरू की गई।
⇎ भाषा = संस्कृत अथवा स्थानीय भाषा।
प्रारंभ में
कुटिल
लिपि का प्रयोग होता था लेकिन बाद में
महाजनी
लिपि प्रयोग की गई।
⇎ ताम्र पत्रों में भाषा के संबंध में अशुद्धियां काफी पाई जाती है।
ताम्रपत्र की शुरुआत राजपरिवार के इष्टदेव के नाम से की जाती थी।
⇎ ताम्रपत्र द्वारा कई राजनीतिक घटनाओं आर्थिक व्यवस्था तथा व्यक्ति विशेष की जानकारी प्राप्त होती है।
⇎ इनसे वंश क्रम का निर्धारण करने और शासन अधिकारियों के नामों को क्रमबद्ध जानने में उपयोग होता है।
⇎ भूमि की नाप में
बीघा
एवम्
हल
का प्रयोग होता है। एक “हल” में 50 बीघा तथा एक बीघा में 40 बांस होते है।
⇎ भूमि की प्रमुख क़िस्म= पीवल, मगरो, पड़त, गलत हास, चरणोंत, रांखड, बीडो, बाड़ी, काकड़, तलाई, गौरमो आदि शब्द का प्रयोग किया गया।
⇎ इनमें दर्शाए गए अनुदान अधिकतर पर्वों पर, धार्मिक कार्यों पर, यात्रा के अवसर पर, मृत्यु पर और विजय के उपलक्ष में दिए जाते थे।
कुछ महत्वपूर्ण ताम्रपत्र
⇎ मथनदेव का ताम्रपत्र- 959 ई (अलवर)-
इसमें समस्त राजपुरुष एवं गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों के समक्ष देवालय के निमित्त भूमि दान की व्यवस्था अंकित है।
⇎ ब्रोच गुर्जर ताम्रपत्र 978 ईसवी-
इसमें गुर्जर क़बीला के सप्तसैन्धव भारत से गंगा कावेरी तक के अभियान का वर्णन है। इसके आधार पर कनिंघम ने राजपूतों को कुषाणों को यूएची जाति का माना है।
⇎ खेरोदा का ताम्रपत्र (1437),
उदयपुर -
यह ताम्रपत्र महाराणा कुंभा के समय का है। इसमें महाराणा कुम्भा ने एकलिंग जी के मंदिर में प्रायश्चित करके 10 हल भूमि का दान किया था।
⇎ चिकली ताम्रपत्र 1483 ई, डूंगरपुर- इसमें वागडी भाषा में पटेल, सुथार तथा ब्राह्मणों द्वारा खेती किए जाने का वर्णन किया गया है। इसमें किसानों से वसूल की जाने वाली विविध लाग बाग का वर्णन है।
⇎ पुर का ताम्र-पत्र (1535 ई.), चित्तौड़गढ़ - यह ताम्र पत्र विक्रमादित्य के समय का है। इसमें हाड़ी रानी कर्मवती द्वारा जौहर में प्रवेश करते समय दिए गए भूमि अनुदान के बारे में जानकारी दी गई है। यह ताम्रपात्र जौहर की प्रथा पर प्रकाश डालता है और इस ताम्रपत्र से चित्तौड़ के दूसरे साके का सटीक समय निर्धारण होता है।