- ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य केस/A K gopalan vs state of madras case
- ए के गोपालन (अयिल्यथ कुटियारी गोपालन) (१ अक्टूबर १९०४ - २२ मार्च १९७७), जिन्हें ए.के. गोपालन या एकेजी के नाम से जाना जाता है, एक भारतीय कम्युनिस्ट राजनीतिज्ञ थे। वह 1952 में पहली लोकसभा के लिए चुने गए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 16 सदस्यों में से एक थे। बाद में वे सीपीआई (एम) के संस्थापक सदस्यों में से एक बने।
- 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध ने ब्रिटिश वर्चस्व के खिलाफ सक्रियता को बढ़ावा दिया और गोपालन को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन 1942 में वे जेल से भाग निकले और 1945 में युद्ध के अंत तक बड़े पैमाने पर सक्रिय बने रहे।
- युद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और 15 अगस्त 1947 को भारत के स्वतंत्र होने पर भी वह सलाखों के पीछे थे। उन्हें कुछ हफ़्तों बाद रिहा कर दिया गया था। ।
- ए के गोपालन या एक भारतीय कम्युनिस्ट राजनीतिज्ञ थे। वह 1952 में पहली लोकसभा के लिए चुने गए भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के 16 सदस्यों में से एक थे। वह माकपा CPI (M) के संस्थापक सदस्यों में से एक थे।
- 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश वर्चस्व के खिलाफ सक्रियता में वृद्धि को प्रेरित करने के लिए गोपालन को गिरफ्तार कर लिया गया। लेकिन 1942 में वह जेल से भाग गया और 1945 में युद्ध के अंत तक सक्रिय रहे। युद्ध की समाप्ति के तुरंत बाद उसे फिर से गिरफ्तार कर लिया गया और 15 अगस्त 1947 को भारत के स्वतंत्र होने के बाद भी वह सलाखों के पीछे था।
- 1950 में केंद्र सरकार ने निवारक निरोध अधिनियम 1950 (Preventive Detention Act 1950) बनाया और मद्रास सरकार ने एक आदेश के तहत उनकी गिरफ्तारी को इस नए बनाए एक्ट के तहत ला दिया।
- यह प्रावधान केंद्र सरकार या राज्य सरकार को राष्ट्रीय रक्षा, विदेशी संबंधों, राष्ट्रीय सुरक्षा, राज्य सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, या आवश्यक आपूर्ति और सेवाओं के रखरखाव के लिए किसी भी तरह से प्रतिकूल कार्य करने से रोकने के लिए किसी को भी हिरासत में लेने की अनुमति देता है।
- इसके ख़िलाफ़ वे न्याय के लिए उच्चतम न्यायालय पहुंचे।
- याचिकाकर्ता जिसे प्रिवेंटिव डिटेंशन एक्ट (1950 का एक्ट IV) के तहत हिरासत में लिया गया था, ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत बंदी प्रत्यक्षीकरण के एक रिट के लिए और नजरबंदी से अपनी रिहाई के लिए आवेदन किया था, इस आधार पर कि उक्त अधिनियम ने संविधान के अनुच्छेद 13 19, 21 और 22 के प्रावधानों का उल्लंघन किया है, और इसलिए उनकी नजरबंदी अवैध थी।
- अनुच्छेद 21 कहता है कि – किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया‘ के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं।
- दरअसल इसका मतलब ये है कि कानून बनाने की सही प्रक्रिया को अपनाकर अगर कोई कानून बनाया गया है तो उसके तहत किसी व्यक्ति को प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से वंचित किया जा सकता है। यानी कि कानून सही है या नहीं उससे कोई मतलब नहीं है बस कानून बनाने की प्रक्रिया सही होनी चाहिए।
- लेकिन अनुच्छेद 13 के अनुसार अगर कोई विधि मूल अधिकार का हनन करती है तो उसे उतनी मात्रा में ख़ारिज़ किया जा सकता है जितनी मात्रा में मूल अधिकार का हनन करता है, यानी कि अनुच्छेद 13 विधि की सम्यक प्रक्रिया (Due process of Law) की बात करता है जिसके तहत कानून में अगर कुछ गड़बड़ी है तो उसे ख़ारिज़ किया जा सकता है।
- ये सभी मूल अधिकारों पर लागू होता है लेकिन अनुच्छेद 21 में विशिष्ट रूप से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया की बात कही गई है।
- दूसरा मुद्दा यह था कि अगर विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया पर चले तो निवारक निरोध अधिनियम 1950 के द्वारा छीनी गई व्यक्तिगत स्वतंत्रता जायज था लेकिन अनुच्छेद 19(1)(d) जो कि देशभर में अबाध संचरण की बात करता है उसके तहत तो गोपालन को आजाद किया जा सकता था क्योंकि वो तो विधि के सम्यक प्रक्रिया के तहत आता है और इस आधार पर निवारक निरोध अधिनियम 1950 को तो खारिज किया जा सकता था? कुल मिलाकर गोपालन ने दावा किया कि निवारक निरोध अधिनियम अनुच्छेद-19 (स्वतंत्रता का अधिकार), अनुच्छेद-21 (जीवन का अधिकार) और अनुच्छेद-22 (गिरफ्तारी और निरोध के विरुद्ध संरक्षण का अधिकार) के साथ असंगत था।
- सभी छह न्यायाधीशों ने अलग-अलग राय लिखी। बहुमत ने माना कि अधिनियम की धारा 14, जो निरोध के आधारों के प्रकटीकरण को प्रतिबंधित करती है, असंवैधानिक थी।
- फ़ैसले निम्न प्रकार थे -
- (1)विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया और विधि की सम्यक प्रक्रिया दोनों अलग-अलग चीज़ें हैं और दोनों को एक नहीं समझा जा सकता।
- (2) अनुच्छेद 21 बिल्कुल सही है और उसका विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया पर चलना भी एकदम सही है।
- (3) अनुच्छेद 21 और अनुच्छेद 19 दोनों अलग-अलग अनुच्छेद है और दोनों को एक साथ नहीं मिलाया जा सकता।
- इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने पिटीशनर के सभी तर्कों को अस्वीकार कर दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि स्वतंत्रता का एक व्यापक अर्थ वाला शब्द है किंतु अनुच्छेद 21 में इसके क्षेत्र को दैहिक विश्लेषण लगाकर सीमित कर दिया गया है और इस अर्थ में दैहिक स्वतंत्रता का अर्थ शारीरिक स्वतंत्रता मात्र से है अर्थात बिना विधि के प्राधिकार के किसी व्यक्ति को कारावास में विरुद्ध करने आदि की स्वतंत्रता है।
- यह परिभाषा अनेक विद्वानों की दी गई परिभाषा पर आधारित थी जिसका उल्लेख अनेक उदारवादी देशों के संविधान में किया गया था।
- बहुमत के अनुसार अनुच्छेद 21, 19 स्वतंत्रता के अधिकार के दो विभिन्न पहलुओं से संबंधित है।
- अनुच्छेद 19 में प्रयुक्त समस्त भारत ने भ्रमण का अधिकार अनुच्छेद 21 में प्रदत्त स्वतंत्रता से बिल्कुल भिन्न है।
- अनुच्छेद 21 के अधीन दैहिक स्वतंत्रता को वंचित करने वाली विधि की विधिमान्यता को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती है कि अनुच्छेद 19 (5) के अधीन आयुक्तियुक निर्बंधन लगाती है अथवा अविधिमान्य है।
- पिटीशनर को उसकी दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार वंचित किया गया था उक्त विधि संविधान विरोधी नहीं है बल्कि संविधानिक है।
- गोपालन बनाम मद्रास राज्य मामले में यह भी कहा गया कि प्रस्तावना जो भारत को एक प्रजातान्त्रिक संविधान प्रदान करती है, कानूनों की व्याख्या करते समय निर्देशित मान लेना चाहिए और धारा 21 के तहत बना कोई भी कानून यदि प्राकृतिक न्याय के सिद्धान्त का उल्लंघन करता है तो उसे अवैध करार दे दिया जाए।
- परन्तु उच्चतम न्यायालय के जजों की बहुमत पीठ ने इसे स्वीकार नहीं किया और कहा कि धारा 21 के तहत बने कानून को प्रस्तावना का वास्ता देकर संशोधित नहीं किया जा सकता है।
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