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Wednesday, December 19, 2018

Role and functions of commercial banks/व्यापारिक बैंकों की भूमिका एवं कार्य प्रणाली

वाणिज्यिक बैंक (commercial banks)-

वाणिज्यिक बैंक ऐसे वित्तीय संस्थान हैं जो लोगों की जमा राशियों को स्वीकार करते हैं तथा ऋण देने का कार्य करते हैं।
यह बैंक निजी तथा सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों में होते हैं।

भारतीय बैंकिंग कंपनीज एक्ट 1949 के अनुसार-
बैंकिंग से तात्पर्य ऋण देने अथवा विनियोजन के लिए जनता का धन जमा करना है जो मांग करने पर लुटाया जा सकता है तथा चेक, ड्राफ्ट आदि के माध्यम से निकाला जा सकता है।

चेक वाहक तथा रेखांकित(bearer or cross cheque)  दोनों प्रकार के हो सकते हैं।

वाणिज्यिक बैंकों के कार्य-

जमा स्वीकार करना-
बैंकों द्वारा बचत खाते चालू खाते तथा अन्य प्रकार के खातों के माध्यम से मांग एवं अवधि जमाओं की सुविधा ग्राहकों को दी जाती है।

ऋण एवं अग्रिम प्रदान करना-
बैंकों द्वारा जमा पूंजी में से एक निश्चित सीमा को छोड़कर बाकी सारा पैसा ऋण तथा अग्रिम के रूप में अपने ग्राहकों को दिया जाता है। इसके अतिरिक्त बैंक अपने ग्राहकों को अधिविकर्ष की सुविधा भी प्रदान करता है।

साख का सृजन करना।

फंड का स्थानांतरण करना।
विदेशी विनिमय का क्रय एवं विक्रय करना।
सामान्य उपयोगी सेवाएं प्रदान करना जिनमें एटीएम सुविधा, इंटरनेट बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग, क्रेडिट एंड डेबिट कार्ड आदि शामिल है।

साख अथवा मुद्रा सृजन की प्रक्रिया-

वाणिज्यिक बैंक द्वारा मुद्रा अथवा साख का सृजन नोट छाप कर नहीं किया जाता अपितु ऋण एवं अग्रिम प्रदान करके यह साख का सृजन करता है।
जो जमा राशि ग्राहकों द्वारा बैंकों में जमा करवाई जाती है उसमें से बैंकों द्वारा अपने अन्य ग्राहकों को ऋण प्रदान किए जाते हैं।
बैंकों की कार्यप्रणाली में उन्हें यह पता होता है कि ग्राहकों द्वारा जमा किया गया पैसा कभी भी एक साथ नहीं निकाला जाएगा। इस वजह से बैंकों के पास बड़ी मात्रा में राशि एकत्र हो जाती है जिसकी अधिकांश मात्रा को और ऋण देने में प्रयोग करते हैं। 
इसका कुछ भाग बैंक नकद रूप में रखता है जिससे वह ग्राहकों की मांगों की पूर्ति करता है।


अपनी धनराशि का कुछ भाग बैंकों द्वारा रिजर्व बैंक में भी जमा कराया जाता है जिसे नकद आरक्षित अनुपात कहा जाता है।
इसके अतिरिक्त वैधानिक नियमों के चलते बैंकों द्वारा अपनी पूंजी में से एक मात्रा में नकदी, सोना एवं प्रतिभूतियां भी जमा रखी जाती है इसे सांविधिक तरलता अनुपात कहा जाता है।
उपरोक्त दोनों अनुपात मिलकर वैधानिक कोष अनुपात का निर्माण करते हैं। जिसका निर्धारण रिजर्व बैंक द्वारा किया जाता है।
यदि रिजर्व बैंक द्वारा एसएलआर की दर में वृद्धि की जाती है तो बैंकों को अपनी जमापूंजी का ज्यादा भाग स्वयं के पास रखना होता है जिससे उसकी साख क्षमता में कमी होती है वहीं यदि बैंक एसएलआर में कमी करता है तो बैंकों के पास ऋण देने के लिए अधिक पैसा होता है व उनकी साख में वृद्धि होती है।
किसी बैंक द्वारा एक निश्चित समय पर सृजित मुद्रा की मात्रा को निम्न सूत्र के द्वारा समझा जा सकता है-

बैंक द्वारा सृजित मुद्रा = बैंक में जमा की मात्रा X 1/ सांविधिक तरलता अनुपात

साख सृजन की सीमाएं-

कोई भी बैंक असीमित मात्रा में साख का सृजन नहीं कर सकता है। साख सृजन की प्रमुख सीमाएं निम्नलिखित हैं-

बैंकिंग अर्थव्यवस्था के विकास का स्तर
आम लोगों की बैंकिंग की आदत
व्यावसायिक एवं औद्योगिक विकास का स्तर
केंद्रीय बैंक की मौद्रिक नीति

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