प्रशासन एवं प्रबंध भाग 12/administration and management part 12/concept of power
शक्ति की अवधारणा (power)-
यह राजनीति विज्ञान के मूल अवधारणा रही है।
राजनीति विज्ञान का मुख्य कार्य समाज के लिए नियम बनाने का निर्णय लेना होता है जिसके लिए शक्ति की आवश्यकता होती है।
शक्ति के बारे में सबसे पहले चिंतन मनु कौटिल्य तथा शुक्र जैसे भारतीय चिंतको द्वारा किया गया।
पाश्चात्य विचारकों में मैक्यावली द्वारा सबसे पहले शक्ति वाद के बारे में चर्चा की गई।
आधुनिक राजनीति विज्ञान में चार्ल्स मेरियम ने शक्ति के विविध पक्षों की व्याख्या की है।
कैटलिन ने राजनीति विज्ञान को शक्ति के विज्ञान के रूप में परिभाषित किया है।
अर्थ एवं परिभाषा-
शक्ति व अवधारणा है जिसके माध्यम से कोई व्यक्तिशक्ति व अवधारणा है जिसके माध्यम से कोई व्यक्ति विरोध की स्थिति होने पर भी अन्य लोगों से अपना कार्य करवाने में सक्षम होता है।
मेकाईवर के अनुसार-
यह किसी भी संबंध के अंतर्गत ऐसी क्षमता है जिसमें दूसरों से कोई काम लिया जाता है या आज्ञापालन कराया जाता है।
आर्गेन्सकी के अनुसार-
शक्ति दूसरे के आचरण को अपने लक्ष्यों के अनुसार प्रभावित करने की क्षमता है।
समकालीन चिंतकों के अनुसार-
कुछ करने की शक्ति अर्थात जब कोई व्यक्ति स्वयं अपने लिए अथवा समाज के लिए कुछ कार्य करता है तब वह इसी अर्थ में शक्ति का प्रयोग करते हैं।
शक्ति तथा बल में अंतर (difference between Power and force)-
सामान्यतः शक्ति और बल दोनों को एक ही माना जाता है लेकिन उनमें अंतर होता है। बल शक्ति का व्यवहारिक रूप होता है।
प्रकट रूप में जो शक्ति है वहीं प्रकट रूप में बल होता है।
उदाहरण के लिए शिक्षक के बाद विद्यार्थी को दंड देने की शक्ति होती है लेकिन वास्तव में जब वह दंड देता है तो यह शक्ति बल में बदल जाती है।
शक्ति तथा प्रभाव में अंतर-
शक्ति में कठोर भौतिक बल का प्रयोग होने की वजह से यह धनात्मक होती है जबकि प्रभाव मनोवैज्ञानिक रूप से किया जाता है।
शक्ति का प्रयोग किसी की इच्छा के खिलाफ भी किया जा सकता है लेकिन प्रभाव संबंधात्मक होता है। प्रभाव जिस व्यक्ति पर हो रहा है उसकी सहमति से ही होता है।
शक्ति अप्रजातांत्रिक तत्व होता है जबकि प्रभाव प्रजातांत्रिक होता है।
शक्ति एक नकारात्मक संकल्पना है जबकि प्रभाव सकारात्मक संकल्पना है।
उदाहरण के लिए- अंग्रेजों ने हम पर शक्ति का प्रयोग किया था लेकिन गांधी जी ने अपने प्रभाव से लोगों को आंदोलन के लिए प्रेरित किया।
शक्ति के प्रकार अथवा रूप-
शक्ति के तीन विविध आयामों कि हम पहचान कर सकते हैं-
राजनीतिक शक्ति
आर्थिक शक्ति
विचारधारात्मक शक्ति
राजनीतिक शक्ति- से तात्पर्य समाज के मूल्यवान संसाधनों जैसे कि पद, प्रतिष्ठा, कर, पुरस्कार आदि के समाज के विभिन्न समूहों में आवंटन से है।
सरकार के औपचारिक अंग जिसमें विधायिका कार्यपालिका एवं न्यायपालिका शामिल है उनके द्वारा इसका प्रयोग किया जाता है।
शक्ति का प्रयोग करने वाले अन्य वर्गों में दबाव समूह और राजनीतिक दल तथा विभिन्न प्रभावशाली व्यक्ति भी शामिल हैं जो कि अनौपचारिक अंग होते हैं।
आर्थिक शक्ति-
आर्थिक स्थिति से तात्पर्य उत्पादन के साधनों एवं विभिन्न प्रकार की भौतिक संपदा पर स्वामित्व से है।
आर्थिक रूप से शक्तिशाली वर्ग राजनीतिक रूप से भी शक्तिशाली होता है। हालांकि राजनीतिक शक्ति का निर्धारण केवल मात्र आर्थिक शक्ति से ही नहीं होता है।
विचारधारात्मक शक्ति-
यह शक्ति लोगों के सोचने तथा समझने के ढंग को प्रभावित करती है।
अलग-अलग देशों में अलग-अलग प्रकार की सामाजिक आर्थिक व राजनीतिक व्यवस्थाएं प्रचलित होती है और इसके लिए विभिन्न विचारधाराओं यथा उदारवाद समाजवाद पूंजीवाद साम्यवाद आदि का सहारा लिया जाता है।
उपरोक्त सभी विचारों का उद्भव अलग-अलग सामाजिक परिस्थितियों में हुआ है। सालन की समय के साथ इनका महत्व कम होता जाता है लेकिन फिर भी कुछ लोग इन्हें बनाए रखते हैं क्योंकि उनके निजी स्वार्थ से जुड़े होते हैं।
कई बार अपनी विचारधारा को बनाए रखने के लिए हिंसा का प्रयोग भी किया जाता है।
चीन में माओवाद तथा रूस में साम्यवाद इसी के उदाहरण है।
भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में भी नक्सलवाद तथा आतंकवाद इसके उदाहरण हैं।
शक्ति की संरचना (structure of power)-
शक्ति की संकल्पना में दो पक्षों के हैं जिनमें से एक द्वारा दूसरे पर नियंत्रण स्थापित किया जाता है। इसके आधार पर चार प्रकार के सिद्धांत महत्वपूर्ण है-
वर्ग प्रभुत्व का सिद्धांत
विशिष्ट वर्गीय सिद्धांत
बहुलवादी सिद्धांत
नारीवादी सिद्धांत
वर्ग प्रभुत्व का सिद्धांत-
यह मार्क्सवाद की देन है जिसके आधार पर आर्थिक स्तर पर समाज के 2 वर्ग बताए गए हैं- ताकतवर बुजुर्आ वर्ग तथा दुर्बल सर्वहारा वर्ग।
आर्थिक स्तर पर बांटे गए इन दोनों वर्गों में निरंतर संघर्ष चलता रहता है।
इस अवधारणा के अनुसार किसी भी व्यक्ति द्वारा प्रत्येक कार्य आर्थिक स्वार्थ से किया जाता है।
यह सही नहीं है क्योंकि कई मामलों में किए जाने वाले कार्य आर्थिक स्वार्थ की बजाए अन्य धाराओं से प्रेरित होते हैं।
विशिष्ट वर्गीय सिद्धांत-
समाज का शक्ति के आधार पर भी दो वर्गों में विभाजित किया गया है एक विशिष्ट वर्ग तथा दूसरा सामान्य वर्ग।
इस प्रकार का विभाजन आर्थिक आधार के साथ-साथ कुशलता, संगठन क्षमता, बुद्धिमता, प्रबंध क्षमता तथा नेतृत्व जैसे योग्यताओं के आधार पर किया जाता है।
किसी विशेष गुण के आधार पर एक विशेष वर्ग का निर्माण होता है।
जैसे कि किसी एक देश विशेष में राजनेता प्रशासक उद्योगपति प्रोफेसर वकील तथा डॉक्टर आपस में मिलकर ऐसे वर्गों का निर्माण करते हैं।
शासन चाहे किसी भी दल का हो यह वर्ग हमेशा शक्तिशाली बने रहते हैं।
नारीवादी सिद्धांत-
यह सिद्धांत लैंगिक आधार पर शक्ति विभाजन करता है।
सिद्धांत के अनुसार समाज की अधिकतर शक्तियां पुरुष वर्ग के पास है और इसका प्रयोग उनके द्वारा महिलाओं पर किया जाता है।
इसी के विरोध में यूरोप में नारी मुक्ति के कई आंदोलन शुरू हुए जिसमें पुरुष प्रभुत्व के अंत का प्रयास किया गया।
हालांकि भारत में इस संबंध में भिन्न परंपरा है और हमारे यहां महिलाओं को मताधिकार और बराबर का दर्जा प्राप्त करने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा है।
हालांकि प्राचीन समय में भारत में महिलाओं को सदैव सम्मानजनक एवं उच्च स्थान दिया गया है।
हमारे यहां तो यह भी कहा जाता है कि जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं।
बहुलवादी सिद्धांत-
यह शक्ति विभाजन का चौथा सिद्धांत है जो कि उपरोक्त वर्णित अन्य सिद्धांतों से काफी भी नहीं।
सभी सिद्धांत वर्गों को सामान्यत 2 वर्ग में बांटते हैं जिनमें से एक शक्तिशाली वह दूसरा शक्तिहीन होता है।
बहुलवादी सिद्धांत के अंतर्गत शक्ति किनी एक या दो वर्गों के हाथ में नहीं होकर अनेक समूहों में बैठी होती है।
इसमें शक्तिशाली होने का तात्पर्य है सार्वजनिक हित में अपनी शक्ति का प्रयोग करना। यह एक भारतीय अवधारणा है तथा उदार लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंतर्गत इसका उपयोग होता है।
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