प्रबंध प्रक्रिया एवं कार्य भाग तीन/Management process and functions part 3/Ras mains paper 1
निर्देशन (direction)-
निर्देशन का अर्थ है - निर्देश प्रदान करना या सही रास्ता दिखाना।
रूपरेखा बनाने तथा कार्य विभागीकरण करने के बाद उपलब्ध संसाधनों का प्रयोग किस प्रकार किया जाएँ, यही निर्देशन है।
प्रबन्धक द्वारा किया गया निर्देशन ही प्राप्त परिणाम की गुणवत्ता निर्धारित करता है।
किसी नाट्य प्रतियोगिता में वहीं नाटक विजयी होता है जिसका निर्देशन सर्वश्रेष्ठ तरीकें से किया गया हो।
संगठन में प्रबंधक द्वारा सभी अधीनस्थ कर्मचारियो को उनके कार्यो के समुचित सम्पादन के लिए निर्देश प्रदान किए जाते है। वह नेतृत्व, अभिप्रेरण तथा सम्प्रेरण के माध्यम से कार्मिकों के व्यवहार को संगठन के अनुकूल बनाता है। प्रभावी निर्देशन से ही कार्मिक स्वेच्छिक रूप से कार्य में तत्पर होते है।
निर्देशन के घटकों में निर्देश, सम्प्रेषण, अनुशासन, पर्यवेक्षण, नेतृत्व तथा अभिप्रेरण शामिल है।
नियन्त्रण (control) -
निर्धारित किए गए कार्यों का कुशलता से निष्पादन करने के लिए नियंत्रण की आवश्यकता होती है।
नियंत्रण को परिभाषित करते हुए हेनरी फेयोल ने बताया है कि-
"नियंत्रण से तात्पर्य इसकी जांच करने से है कि निर्धारित किए गए सभी कार्य सही प्रकार से नियमानुसार हो रहे हैं या नहीं।"
इसका उद्देश्य चल रहे कार्यो में गलतियों का पता लगाकर उनमें सुधार करने से है तथा भविष्य में उनकी पुनरावृति को रोकने से है।
नियंत्रण के चार प्रमुख तत्व होते हैं-
प्रमाप का निर्धारण
कार्यों का मूल्यांकन व विवरण तैयार करना
वास्तविक एवं निर्धारित आंकड़ों की तुलना करना
विचलन के आधार पर सुधारात्मक कार्रवाई करना।
समन्वय (coordination)-
संगठन के विभिन्न कार्मिकों के बीच विभिन्न मुद्दो को लेकर क्षमतागत एवं वैचारिक भिन्नता पाई जाती है। इसकी वजह से कई बार कार्मिकों के बीच आपसी संघर्ष की सम्भावना बनी रहती है।
प्रबन्धन के लिए यह आवश्यक होता है कि वह इनके बीच सामन्जस्य एवं तालमेल बिठाएं। मानवीय संसाधनो के अतिरिक्त भौतिक संसाधनो की कमी को देखते हुए उनके बीच भी तालमेल स्थापित करना पडता है।
ये सभी कार्य समन्वय के अन्तर्गत ही किए जा सकते है अतः समन्वय को प्रबन्ध का सार भी कहा जाता है।
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