भोजन एवं मानव स्वास्थ्य भाग तीन (food and human health part 3)/ Ras mains paper 2
प्रतिरक्षा
विभिन्न प्रकार के रोगाणुओं से शरीर को सुरक्षित रखने की क्षमता प्रतिरक्षा या रोग प्रतिरोधक क्षमता कहलाती है।
रोगाणुओं से शरीर को सुरक्षित रखने के लिए होने वाली क्रियाओं तथा इस तंत्र के अध्ययन को प्रतिरक्षा विज्ञान के नाम से जाना जाता है।
इस तंत्र के अन्तर्गत अस्थिमज्जा (bone marrow), यकृत (liver), रक्त तथा लसीका में करोड़ो कोशिकाए क्रियाशील रहती है।
प्रतिरक्षा जन्मजात या उपार्जित हो सकती है।
जन्मजात प्रतिरक्षा विधि (innate defence mechanism)-
बालक के जन्म के साथ ही जो प्रतिरक्षा उसे प्राप्त होती है उसे जन्मजात प्रतिरक्षा कहते हैं।
इसे सामान्य, अनिर्दिष्ट अथवा प्राकृतिक प्रतिरक्षा भी कहते हैं।
यह प्रतिरक्षा सभी प्रकार के रोगाणुओं के विरुद्ध समान व्यवहार करती है।
इस प्रतिरक्षा के कुछ सहायक कारक भी होते हैं जो कि निम्न प्रकार है -
- त्वचा , नासिका तथा अन्य अंगो में पाएं जाने वाले पक्ष्माभ तथा कक्षाभ जैसे भौतिक अवरोधक
- आमाशय में उपस्थित अम्ल , लार, पसीना तथा अश्रु में पाएं जाने वाले रासायनिक अवरोधक
- भक्षण में सक्षम मेक्रोफेज, मोनो साइट तथा न्यूट्रोफिल जैसे कोशिका अवरोधक।
- ज्वर (बुखार) तथा सूजन जैसे कारक।
उपार्जित प्रतिरक्षा विधि(acquired defence mechanism)-
इसे अनुकूलित अथवा विशेष प्रतिरक्षा भी कहा जाता है।
इस प्रकार की प्रतिरक्षा में किसी विशेष रोगाणु , बाह्य पदार्थ के प्रति सुरक्षा दी जाती है।
शरीर में किसी विशेष प्रतिजन के प्रवेश पर विशेष प्रतिरक्षी का निर्माण होता है जो उस प्रतिजन को नष्ट करने में सहायता प्रदान करता है। टीकाकरण की प्रक्रिया उपार्जित प्रतिरक्षा पर ही आधारित होती है। यह विशिष्ट प्रतिरक्षा दो प्रकार की होती है-
सक्रिय प्रतिरक्षा(active immunity)-
इस प्रकार की प्रतिरक्षा में शरीर द्वारा स्वयं प्रतिरक्षी अर्थात एंटीबॉडी का निर्माण किया जाता है जो कि प्रतिजन को नष्ट कर सकें। इस प्रकार उत्पन्न होने वाले एंटीबॉडी किसी विशेष एंटीजन के प्रति ही क्रियाशील होते हैं। इस प्रकार की प्रतिरक्षा चिरस्थायी होती है।
निष्क्रिय प्रतिरक्षा( passive immunity)-
इस प्रकार की प्रतिरक्षा में एंटीबॉडी का निर्माण शरीर द्वारा नहीं किया जाता बल्कि उन्हें बाहर से शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है। इसमें एंटीबॉडी का निर्माण दूसरे जीव के शरीर में कराया जाता है तथा बाद में उसे रोगी के शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है। डिप्थीरिया तथा टिटनेस जैसे रोगों में इसका प्रयोग किया जाता है।
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