संस्कृतिकरण की प्रक्रिया-
जाति व्यवस्था को भारतीय सामाजिक व्यवस्था की एक अद्वितीय विशेषता माना गया है।
यह भारतीय सामाजिक व्यवस्था में स्तरीकरण को प्रदर्शित करने वाला एक महत्वपूर्ण तत्व है।
भारत में जातियों को समान नहीं मानते हुए एक जाति को अन्य जाति से उच्च माना गया है।
इस क्षेत्र में देश के प्रसिद्ध समाजशास्त्री एम एन श्रीनिवास द्वारा एक अध्ययन किया गया तथा संस्कृतिकरण की अवधारणा प्रस्तुत की गई।
उन्होंने समाज के वंचित वर्ग के लिए निम्न जाति समूह का प्रयोग किया।
इन्होंने 1952 में संस्कृतिकरण की अवधारणा का सर्वप्रथम प्रयोग किया।
इनसे पूर्व जाति व्यवस्था का अध्ययन वंशानुक्रम शुद्धता या अशुद्धता की अवधारणा पर किया जाता था।
जबकि इन्होंने जाति व्यवस्था को उर्ध्वाधर गतिशीलता की अवधारणा से विवेचित करने का प्रयास किया।
इन की अवधारणा से पूर्व जाति व्यवस्था को जन्म आधारित एक कठोर व्यवस्था माना जाता था जिसका समर्थन एस वी केतकर(हिस्ट्री ऑफ कास्ट इन इंडिया), मदान तथा मजूमदार जैसे समाज शास्त्रियों द्वारा किया गया है।
श्रीनिवास ने इनके विपरीत जाति व्यवस्था को गतिशील मानते हुए इसमें परिवर्तन की संभाव्यता को प्रकट किया है।
संस्कृतिकरण की परिभाषा-
श्रीनिवास के अनुसार-
"एक ऐसी प्रक्रिया जिसमें निम्न जातियां उच्च जातियों विशेषकर ब्राह्मणों के रीति रिवाजों, संस्कारों विश्वासों जीवन निधि एवं अन्य सांस्कृतिक लक्षणों एवं प्रणालियों को ग्रहण करती है।"
इन के अनुसार संस्कृतिकरण की प्रक्रिया अपनाने वाली जाति एक दो पीढ़ी बाद ही उच्च जाति में प्रवेश के लिए दावा करने में समर्थ हो जाती है।
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया किसी समूह को स्थानीय जाति संस्तरण में उच्च स्तर की ओर ले जाने में सहायक होती है।
निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि संस्कृतिकरण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें कोई जाति अथवा समूह सांस्कृतिक रूप से प्रतिष्ठित समूह के रीति-रिवाजों तथा परंपराओं का अनुसरण कर अपनी सामाजिक प्रस्थिति को उच्च बनाते हैं।
संस्कृतिकरण की विशेषताएं-
स्थानीय प्रबल जाति के अनुकरण की प्रधानता।
संस्कृतिकरण एक दो तरफा प्रक्रिया है। उदाहरण स्थानीय देवी देवताओं की पूजा।
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया में केवल पदमूलक परिवर्तन ही होते हैं। संरचनात्मक परिवर्तनों का अभाव।
यह एक लंबी अवधि की प्रक्रिया है।
यह कोई व्यक्तिगत प्रक्रिया नहीं होकर सामूहिक प्रक्रिया है।
इस प्रक्रिया में लौकिक एवं कर्मकांडी स्थिति के मध्य असमानता को दूर करने का प्रयास होता है।
संस्कृतिकरण के प्रोत्साहन के कारक-
संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के प्रोत्साहन को निम्नलिखित तीन कारणों से बल मिला-
संचार एवं यातायात के साधनों के विकास के फलस्वरुप दुर्गम क्षेत्रों तक भी पहुंच आसान बनी जिसने संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को बढ़ावा दिया।
ब्राह्मणों की विभिन्न कर्मकांडी क्रियाओं से मंत्र उच्चारण की पृथकता के फलस्वरूप यह अन्य हिंदू जातियों के लिए भी सुलभ तथा आसान हो गए। इसने भी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को सहयोग प्रदान किया।
संविधान में प्रत्येक प्रकार के वर्ग विभेद की समाप्ति के लिए प्रावधान किए हैं। इस प्रकार राजनीतिक प्रोत्साहन भी संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का प्रमुख कारण है।
संस्कृतिकरण का आलोचनात्मक विश्लेषण-
कई विद्वानों द्वारा श्रीनिवास जी की दी गई संस्कृति की अवधारणा के विरोध में भी मत प्रकट किया गया है।
स्वयं श्रीनिवास जी ने इसे एक विषम तथा जटिल अवधारणा बताया है तथा वे इसे एक अवधारणा की बजाय अनेक अवधारणाओं का योग बताते हैं।
एस जी बैली ने अपनी पुस्तक "कास्ट एंड द इकोनॉमिक फ्रंटियर" में लिखा है की संस्कृतिकरण की प्रक्रिया द्वारा सांस्कृतिक परिवर्तन की स्पष्ट व्याख्या नहीं की जा सकती है।
संस्कृतिकरण एक और पहलू जिसकी समाजशास्त्रीय आलोचना की है वह है कि "यह अवधारणा अपवर्जन तथा असमानता पर आधारित समाज का समर्थन करती है।" यह धारणा उच्च जाति द्वारा निम्न जाति के लिए किए गए भेदभाव को उनका विशेषाधिकार मानती है। इस अवधारणा द्वारा उच्च जाति के जीवन शैली को उत्तम मानना भी आलोचनात्मक दृष्टिगत होता है।
इसके बावजूद संस्कृतिकरण की अवधारणा ने विभिन्न जातियों के मध्य सांस्कृतिक सामाजिक गतिशीलता को समझने में हमारी सहायता की है।
Sir y download nahi note kya
ReplyDeleteसर प्लीज यह बताईए क्या आप मुख्य परीक्षा से पहले पूरा कोर्स करवा देंगें क्या।
ReplyDeleteआपके ये नोटस अति लाभप्रद होोगे जी
अच्छा प्रयास है
ReplyDeleteFantastic efforts,😇
ReplyDeleteAn outstanding initiative but required more expansion… thx a lot..
ReplyDeleteBest of luck
ReplyDeleteJai Shree Ram
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