पुरुषार्थ की अवधारणा/concept of honor/Ras mains paper 1
भारतीय समाज में पुरुषार्थ के बिना मानव जीवन की कल्पना करना भी असंभव है।
पुरुषार्थ भारतीय दर्शन की एक अमूल्य तथा अनूठी देन है।
यह पुरुष तथा अर्थ दो शब्दों से मिलकर बना है जिसमें पुरुष से तात्पर्य मनुष्य अर्थात स्त्री अथवा पुरुष से है वही अर्थ का तात्पर्य के लिए है।
अर्थात जो कृत्य अथवा कार्य मनुष्य के जीवन को नियंत्रित अथवा सुव्यवस्थित करने के लिए है वही पुरुषार्थ है।
पुरुषैरथ्यर्ते इति पुरुषार्थ
अर्थात अपने अभीष्ट को प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करना ही पुरुषार्थ है।
पुरुषार्थ मानव जीवन के लिए निर्धारित लक्ष्य है।
विभिन्न उपनिषदों गीता तथा स्मृतियों में चार प्रकार के पुरुषार्थों का वर्णन किया गया है। ये धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष हैं।
धर्म-
धारयति इति धर्म:
अर्थात जीवन में जो धारण करने योग्य है वही धर्म है।
धर्म कोई अंधविश्वास या रूढ़िवादिता नहीं है बल्कि यह व्यक्ति को अपने कर्तव्य का निर्वहन करने तथा जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।
धर्म कोई अंधविश्वास या रूढ़िवादिता नहीं है बल्कि यह व्यक्ति को अपने कर्तव्य का निर्वहन करने तथा जीवन में आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है।
धर्म उन सभी गुणों को मानव जीवन में सम्मिलित करता है जो हमारे आचरण को नियंत्रित तथा संयमित करने में सहायता करते हैं।
दया, संतोष, साहस, क्षमा, धैर्य, अहिंसा, अक्रोध तथा कर्तव्य पालन जैसे गुणों को करने की प्रेरणा धर्म से ही मिलती है।
धर्मानुसार व्यक्ति को जीवन में 5 महाऋण से मुक्त होने के लिए पांच महायज्ञ करने की आवश्यकता होती है। इन ऋणों में माता-पिता, ऋषि-मुनि, देवी-देवता, अतिथि तथा प्राणी मात्र का ऋण शामिल है।
धर्म का संबंध किसी ईश्वरीय मत से ना होकर मनुष्य के क्रिया-कलापों पर नियंत्रण से है।
धर्म इस लोक के साथ-साथ परलोक की उन्नति से भी संबंध रखता है। यह भारतीय समाज में धर्म को पुरूषार्थ मानकर उसके अनुसार आचरण पर बल दिया गया है।
अर्थ-
वे सभी भौतिक भौतिक तथा साधन जो मानव की दैनिक भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु आवश्यक होते हैं , अर्थ के अंतर्गत आते हैं।
धन तथा संपत्ति मानव अस्तित्व के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।
बीजी गोखले के अनुसार-
"अर्थ के अंतर्गत वे सभी वस्तुएं आती हैं जो परिवार बसाने गृहस्थी चलाने तथा कर्तव्य के निर्वहन में उपयोगी होती है।"
पंचमहायज्ञ की पूर्ति तथा पंचमहाऋणों से मुक्ति हेतु अर्थ की आवश्यकता होती है।
धन के भाव में व्यक्ति निर्धन होता है जिसे कौटिल्य तथा पंचतंत्र में अभिशाप के रूप में माना गया है।
पुरुषार्थों के अनुसार मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है अतः व्यक्ति को उचित तरीके से ही अर्थ प्राप्ति करनी चाहिए। इस हेतु से अर्थ को धर्म के अधीन रखा गया है।
धन प्राप्ति के लिए मनुष्य को केवल गृहस्थ आश्रम में ही प्रयत्न करने की अनुमति दी गई है। शेष आश्रमों में इसका निषेध किया गया है।
काम-
काम से तात्पर्य मनुष्य की सभी प्रकार की कामनाओं तथा अपेक्षाओं से है। जीवन की निरंतरता बनाए रखने के लिए काम की आवश्यकता होती है।
काम पुरुषार्थ व्यक्ति की मानसिक शारीरिक तथा भावनात्मक संतुष्टि से जुड़ा है।
लेकिन धर्म ग्रंथों में धर्म आधारित काम को ही मान्यता दी गई है। क्योंकि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष होता है अतः काम से विरक्त होकर ही व्यक्ति इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
मोक्ष-
मोक्ष पुरुषार्थ को मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य माना गया है। न केवल हिंदू धर्म में, बल्कि बौद्ध धर्म में निर्वाण तथा जैन धर्म में केवल्य के रूप में इसे मान्यता प्रदान की गई है।
मनीषियों ने शारीरिक उन्नति के साथ-साथ आध्यात्मिक उन्नति को भी महत्वपूर्ण माना है। मोक्ष से तात्पर्य अज्ञान के नाश से है।
मीमांसा दर्शन के अंतर्गत स्वर्ग की प्राप्ति को ही मोक्ष माना गया है।
बौद्ध दर्शन में जीवन मुक्ति तथा विदेह मुक्ति ही मोक्ष के पर्याय है।
मोक्ष प्राप्ति के लिए तीन मार्ग बताए गए हैं।
कर्म मार्ग, ज्ञान मार्ग तथा भक्ति मार्ग।
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