पारिस्थितिकी भाग 2: अनुकूलन व अजैविक कारकों के प्रति अनुक्रिया
अजैविक कारकों के प्रति अनुक्रिया
भिन्न-भिन्न आवासों में रहने वाले जीव दबाव वाली परिस्थितियों का सामना करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के तरीकों का प्रयोग करते हैं।
जीवो का आंतरिक पर्यावरण सारे जैव रासायनिक अभिक्रियाओं और कार्यिकीय प्रकार्यो को अधिकतम दक्षता से होने देता है और इस प्रकार जातियों में तंदुरुस्ती को बढ़ाता है।
विभिन्न परिस्थितियों का सामना करने के लिए जीव निम्नलिखित तरीके अपनाते है -
नियमन करना -
यह गुण सभी पक्षियों, स्तनधारियों, थोडे से निम्न कशेरूकी और कुछ अकशेरूकी जातियों में होता है।
ये जीव समस्थापन / होमियोस्टेसिस के लिए ताप तथा परासरण नियमन करने में सक्षम होते हैं चाहे वे कैसे भी वातावरण में हो।
मनुष्य गर्मियों में पसीने के वाष्पन द्वारा शरीर को ठण्डा बनाए रखते हैं तथा अधिक सर्दी में शरीर कांपने लगता है जो कि एक प्रकार का व्यायाम है जिससे ऊष्मा उत्पन्न होती है तथा शरीर का तापमान बढ़ जाता है।
संरूपण करना -
यह तरीका लगभग 99 प्रतिशत जीवों द्वारा अपनाया जाता है जिनमें मुख्य रूप से जलीय जीव तथा सभी पादप शामिल है।
ये जीव अपने आंतरिक पर्यावरण को स्थिर नहीं बनाए रख सकते, अतः उनके शरीर का तापमान परिवेशी तापमान के अनुसार बदलता रहता है।
जलीय जीवों में शरीर के तरल की परासरणी सान्द्रता परिवेशी जल के अनुसार बदलती रहती है।
ऐसे जीवों (प्राणी तथा पादप) को संरूपी (कान्फार्मर्स) कहा जाता है।
कुछ छोटे जीवों जैसे गुंजन पक्षी के मामले में ताप नियमन अत्यधिक खर्चीला होता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इनका पृष्ठीय क्षेत्रफल इनके आयतन की तुलना में ज्यादा होता है जिससे ऊष्मा की अधिक हानि होती है। इसलिए ऐसे जीव ध्रुवीय क्षेत्रो में नहीं पाएं जाते है।
अगर दबाव भरी बाहरी परिस्थितियाँ स्थान विशेष में अथवा सीमित समय के लिए होती है तो जीव के पास कुछ अन्य विकल्प भी होते है।
प्रवास करना -
सीमित समय के लिए कुछ जीव दबाव के समय अस्थायी रूप से अनुकूल क्षेत्र की ओर पलायन कर जाते है और ऐसी अवधि की समाप्ति पर वापस लौट आते है।
अनेक प्राणी विशेषत: पक्षी, शीतॠतु में लंबी दूरी का प्रवास करके अनुकूल क्षेत्र में चले जाते है।
निलंबित करना -
प्रतिकूल परिस्थिति में जीवित रहने के लिए जीवाणुओ, कवकों तथा निम्न पादपों मे विभिन्न प्रकार के मोटी भित्ति के बीजाणु बन जाते है तथा उपयुक्त पर्यावरण मिलते ही ये पुनः अंकुरित हो जाते है।
पलायन से बचाव हेतु ध्रुवीय भालू शीत ऋतु में शीतनिष्क्रियता (हाइबर्नेशन ) में चले जाते है।
कुछ मछलियाँ तथा घोंघे ग्रीष्म ऋतु से सम्बधित ताप तथा जल शुष्कन जैसी समस्याओं से बचने के लिए ग्रीष्मनिष्क्रियता (अष्टिवेशन ) में चले जाते है।
झीलों तथा तालाबों में प्राणिप्लवक(जूप्लैंक्टन) की अनेक जातियॉ उपरति(डायपाज) में आ जाती है निलंबित परिवर्धन की एक अवस्था है।
अनुकूलन
यह जीव का कोई ऐसा गुण (आकारकीय, कार्यिकीय, व्यावहारिक ) है, जो उसे अपने आवास में जीवित रहने तथा जनन करने के योग्य बनाता है।
अनुकूलन लंबी विकास यात्रा के पश्चात निर्मित होते हैं तथा उसके बाद स्थिर हो जाते हैं।
उदाहरण-
अमेरिकी मरुस्थल का कंगारु चूहा अपनी जल की आवश्यकता की पूर्ति के लिए अपनी आंतरिक वसा का आक्सीकरण करने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त यह अपने मूत्र को भी सान्द्रित कर लेता है।
वाष्पीकरण से होने वाली जल की हानि को कम करने के लिए मरुस्थलीय पौधों की पत्तियों पर वसा की मोटी परत (क्यूटिकल) होती है तथा इनके रंध्र गहरे गर्त में उपस्थित होते है।
नागफनी तथा केक्टस जैसे पौधों में पत्तियां बदलकर कांटो में रुपांतरित हो जाती है तथा प्रकाश संश्लेषण का कार्य चपटे तने द्वारा किया जाता है।
ठंडी इलाके वाली प्राणियों में कान तथा नाक छोटे होते हैं जिससे ऊष्मा की हानि न्यूनतम हो। (एलन का नियम)
इसी तरह ध्रुवीय समुद्रों में पाई जाने वाली सील की त्वचा के नीचे वसा की मोटी परत(तमिवसा/बलबर) होती है जिससे उष्मा की हानि कम हो।
उच्च तुंगता वाले क्षेत्रों में रहने वाले मनुष्यों में हीमोग्लोबिन की मात्रा सामान्य ऊंचाई वाले क्षेत्रों से अधिक होती है जिससे कि ऑक्सीजन का अधिक मात्रा में परिवहन हो सके।
कुछ जीव अपने पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों का सामना करने के लिए व्यावहारिक अनुक्रिया दर्शाते हैं।
मरुस्थल में पाई जाने वाली छिपकली तापमान कम होने पर धूप सेंक लेती है तथा तापमान अधिक होने पर मिट्टी के नीचे या छाया में चली जाती है।
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bhut bdiya sir g
ReplyDeleteAll concept clear
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