मारवाड़ में कृषक आंदोलन
मारवाड़ का कृषक आंदोलन जयनारायण व्यास के नेतृत्व में राधाकृष्ण तात जैसे नेताओं के सहयोग से संभव हो पाया।
मारवाड़ राजपूताना का वह क्षेत्र था जहां किसानों की समस्याओं को लेकर सर्वाधिक जागृति थी।
यहां जनमत तैयार करने का कार्य मारवाड़ हितकारी सभा के नेतृत्व में हुआ।
1936 में मारवाड़ में राज्य सरकार द्वारा 119 प्रकार की लाग बाग को समाप्त कर दिया गया जिस पर किसानों ने जागीर से भी इन्हें समाप्त करने की मांग की।
मारवाड़ लोक परिषद ने 1939 में किसानों की इस मांग का समर्थन किया तथा उन्हें आंदोलन करने के लिए प्रेरित किया।
इस आंदोलन को असफल करने के लिए शासन द्वारा मारवाड़ किसान सभा नामक एक समानांतर संगठन का निर्माण किया गया लेकिन वे इसमें कामयाब नहीं हो पाए।
इसी समय जाट कृषक सुधारक सभा का सहयोग भी इस आंदोलन को मिला तथा रामदेवरा व नागौर के मेलों में भी जन समर्थन प्राप्त हुआ।
हरिजन नाम समाचार पत्र ने आंदोलन का समर्थन करते हुए सरकार की आलोचना की।
इसके फलस्वरुप दरबार ने 1946 में भूमि बंदोबस्त लागू करने के आदेश किए लेकिन जागीरदारों ने इसे नहीं मानते हुए किसानों पर अत्याचार प्रारंभ कर दिए।
13 मार्च 1947 को डाबरा में किसानों तथा परिषद की कार्यकर्ताओं ने एक शांतिपूर्ण जुलूस निकाला था जिस पर पुलिस द्वारा भयंकर अत्याचार किए गए।
बाद में किसानों की समस्याओं का समाधान आजादी के पश्चात ही संभव हो पाया।
मारवाड़ राजपूताना का वह क्षेत्र था जहां किसानों की समस्याओं को लेकर सर्वाधिक जागृति थी।
यहां जनमत तैयार करने का कार्य मारवाड़ हितकारी सभा के नेतृत्व में हुआ।
1936 में मारवाड़ में राज्य सरकार द्वारा 119 प्रकार की लाग बाग को समाप्त कर दिया गया जिस पर किसानों ने जागीर से भी इन्हें समाप्त करने की मांग की।
मारवाड़ लोक परिषद ने 1939 में किसानों की इस मांग का समर्थन किया तथा उन्हें आंदोलन करने के लिए प्रेरित किया।
इस आंदोलन को असफल करने के लिए शासन द्वारा मारवाड़ किसान सभा नामक एक समानांतर संगठन का निर्माण किया गया लेकिन वे इसमें कामयाब नहीं हो पाए।
इसी समय जाट कृषक सुधारक सभा का सहयोग भी इस आंदोलन को मिला तथा रामदेवरा व नागौर के मेलों में भी जन समर्थन प्राप्त हुआ।
हरिजन नाम समाचार पत्र ने आंदोलन का समर्थन करते हुए सरकार की आलोचना की।
इसके फलस्वरुप दरबार ने 1946 में भूमि बंदोबस्त लागू करने के आदेश किए लेकिन जागीरदारों ने इसे नहीं मानते हुए किसानों पर अत्याचार प्रारंभ कर दिए।
13 मार्च 1947 को डाबरा में किसानों तथा परिषद की कार्यकर्ताओं ने एक शांतिपूर्ण जुलूस निकाला था जिस पर पुलिस द्वारा भयंकर अत्याचार किए गए।
बाद में किसानों की समस्याओं का समाधान आजादी के पश्चात ही संभव हो पाया।
सीकर का कृषक आंदोलन
इस आंदोलन से जुडे प्रमुख नेताओं में सरदार हरलाल सिंह, नेतराम सिंह तथा पृथ्वी सिंह गोठड़ा शामिल थे।
गुलाम भारत में पूरे राजस्थान में किसानों की लगभग एक जैसी दयनीय हालत थी। सीकर का क्षेत्र भी जागीरदारों की अत्याचारों, लाग बाग तथा बेगार से त्रस्त था।
आंदोलन की शुरुआत 1923 से होती है जब सीकर के राव राजा कल्याण सिंह द्वारा वर्षा नहीं होने की बावजूद किसानों पर भू राजस्व में 25 से 50% तक वृद्धि कर दी गई।
राजस्थान सेवा संघ की मंत्री रामनारायण चौधरी के सहयोग से किसानों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई तथा 1931 में राजस्थान जाट क्षेत्रीय महासभा का गठन हुआ।
किसानों को धार्मिक आधार पर संगठित करने के लिए 1934 में जाट प्रजापति महायज्ञ किया गया तथा एक जुलूस निकाला गया। इस यज्ञ में आसपास के लगभग तीन लाख लोगों ने भाग लिया।
महिलाओं ने सोतिया के बास गांव में किए गए दुर्व्यवहार के खिलाफ एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें 10000 महिलाओं ने भाग लिया जिसमें किशोरी देवी उत्तमा देवी, दुर्गा देवी, फूला देवी तथा रमा देवी जैसी महिलाएं प्रमुख थी।
1935 में कूदन गांव की वृद्ध महिला धापी दादी से प्रेरित होकर किसानों ने लगान देने से मना कर दिया।
पुलिस द्वारा दमन के लिए चलाई गई गोलियों से चार किसान शहीद हो गए जबकि 175 को गिरफ्तार कर लिया गया।
इस हत्याकांड के फलस्वरुप सीकर का आंदोलन एकमात्र ऐसा आंदोलनदोलन था जिसकी गूंज संसद तक सुनाई दी। 1935 के अंत तक किसानो की अधिकांश मांगे मान ली गई।
आंदोलन की शुरुआत 1923 से होती है जब सीकर के राव राजा कल्याण सिंह द्वारा वर्षा नहीं होने की बावजूद किसानों पर भू राजस्व में 25 से 50% तक वृद्धि कर दी गई।
राजस्थान सेवा संघ की मंत्री रामनारायण चौधरी के सहयोग से किसानों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई तथा 1931 में राजस्थान जाट क्षेत्रीय महासभा का गठन हुआ।
किसानों को धार्मिक आधार पर संगठित करने के लिए 1934 में जाट प्रजापति महायज्ञ किया गया तथा एक जुलूस निकाला गया। इस यज्ञ में आसपास के लगभग तीन लाख लोगों ने भाग लिया।
महिलाओं ने सोतिया के बास गांव में किए गए दुर्व्यवहार के खिलाफ एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसमें 10000 महिलाओं ने भाग लिया जिसमें किशोरी देवी उत्तमा देवी, दुर्गा देवी, फूला देवी तथा रमा देवी जैसी महिलाएं प्रमुख थी।
1935 में कूदन गांव की वृद्ध महिला धापी दादी से प्रेरित होकर किसानों ने लगान देने से मना कर दिया।
पुलिस द्वारा दमन के लिए चलाई गई गोलियों से चार किसान शहीद हो गए जबकि 175 को गिरफ्तार कर लिया गया।
इस हत्याकांड के फलस्वरुप सीकर का आंदोलन एकमात्र ऐसा आंदोलनदोलन था जिसकी गूंज संसद तक सुनाई दी। 1935 के अंत तक किसानो की अधिकांश मांगे मान ली गई।
शेखावाटी का किसान आंदोलन-
इस आंदोलन को हम सीकर के आंदोलन का ही विस्तार मान सकते हैं।
यहां के बिसाऊ, मलसीसर, नवलगढ़, ढूंढलोद तथा मंडावा ठिकाने जागीरदारों के अत्याचारों से त्रस्त थे।
अखिल भारतीय जाट महासभा ने अपने झुंझुनू अधिवेशन में इन किसानों की समस्याओं का समर्थन किया।
किसानों ने जागीरदारों को लगान नहीं देने का फैसला किया।
1939 में जयपुर प्रजामंडल ने भी इस आंदोलन को नैतिक समर्थन दिया।
1942 से 1946 की बीच जयपुर राज्य ने जागीरदारों तथा किसानों के बीच समझौता करवाने की कई कोशिशें की लेकिन स्थाई समाधान आजादी के बाद ही संभव हो पाया।
यहां के बिसाऊ, मलसीसर, नवलगढ़, ढूंढलोद तथा मंडावा ठिकाने जागीरदारों के अत्याचारों से त्रस्त थे।
अखिल भारतीय जाट महासभा ने अपने झुंझुनू अधिवेशन में इन किसानों की समस्याओं का समर्थन किया।
किसानों ने जागीरदारों को लगान नहीं देने का फैसला किया।
1939 में जयपुर प्रजामंडल ने भी इस आंदोलन को नैतिक समर्थन दिया।
1942 से 1946 की बीच जयपुर राज्य ने जागीरदारों तथा किसानों के बीच समझौता करवाने की कई कोशिशें की लेकिन स्थाई समाधान आजादी के बाद ही संभव हो पाया।
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