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Monday, December 18, 2017

भगवद् गीता (प्रशासन में भूमिका)-ras mains paper 3/Bhagwatgeeta ethics in hindi/

Bhagwatgeeta ethics in hindi/भगवद् गीता (प्रशासन में भूमिका)-ras mains paper 3


गीता भारतीय साहित्य का एक सर्वमान्य तथा अति लोकप्रिय ग्रन्थ है। पुरातन वेदों तथा उपनिषदों का सार गर्भित रूप ही गीता के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
अलग अलग दार्शनिकों ने गीता की भिन्न-२ व्याख्या की है लेकिन मुख्यतः इसमें ज्ञान योग, भक्ति योग, तथा निष्काम कर्मयोग इन तीनों के बारे में चर्चा की गई है।
प्रारंभिक काल से ही भारतीय दर्शन पर गीता का सर्वाधिक प्रभाव रहा है।
गीता एक अध्यात्म से सम्बधित ग्रन्थ है।
गीता में वर्ण व्यवस्था ( ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र), आश्रम व्यवस्था ( ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास), पुनर्जन्म की अवधारणा, आत्मा की अमरता तथा ईश्वर की सर्वोच्च सत्ता को दृढ़ता के साथ स्वीकार किया गया है।
गीता  के अनुसार विभिन्न वर्णो का विभाजन जन्म के आधार पर नहीं होकर उनके कर्म के आधार पर किया गया तथा प्रत्येक वर्ण बिना किसी भेदभाव के अपना अपना महत्व रखता था।

 
निष्काम कर्मयोग-
 
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से सम्पूर्ण प्राणी जगत को निष्काम कर्मयोग का संदेश दिया है।
इसके अनुसार व्यक्ति को सदाचार के मार्ग पर चलते हुए बिना किसी फल की इच्छा किये बिना कामना रहित कर्म करने चाहिए। इसे ही निष्काम कर्म कहा गया है। चुकिं हमारे किए गए कार्यो का परिणाम हम निर्धारित नहीं कर सकते है अतः हमारा अधिकार केवल कर्म करने तक ही सीमित है। योग से तात्पर्य जय तथा पराजय दोनों स्थिति में समभाव रखना है।
 
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ज्ञान योग-
 
ज्ञान योग के अन्तर्गत व्यक्ति अपने चित्त को स्थिर करते हुए परम तत्व ब्रह्य को जानने का प्रयास करता है। इसकी अन्तिम स्थिति में आत्म तत्व की ब्रह्म तत्व में विलीनता होती है। ज्ञान योग में भी कर्मो के त्याग की जगह फलेच्छा की समाप्ति पर जोर दिया गया ह्रै।
ज्ञान योग के मार्ग को गीता में सबसे कठिन मार्ग बताया गया है।
 
भक्ति योग-
 
भक्ति योग में समर्पण तथा ईश्वर में अनन्य निष्ठा पर जोर दिया गया है। इस मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति परोपकार की भावना रखते हुए निरन्तर ईश्वर का स्मरण करते है तथा नीतिपूर्वक जीवन निर्वाह का प्रयास करते है। इसमें स्वयं के प्रत्येक कर्म को ईश्वर को समर्पित कर दिया जाता है।
निष्काम कर्मयोग को ज्ञान योग तथा भक्तियोग से श्रेष्ठ माना गया है।
 
स्थितप्रज्ञ-
 
ऐसा मनुष्य जिसने अपनी समस्त इन्द्रियो तथा मन को नियंत्रित कर लिया हो तथा जो कर्म फलासक्ति से रहित हो एवं जय तथा पराजय दोनों स्थिति में समभाव रखता हो, गीता में उसे स्थितप्रज्ञ की संज्ञा दी गई है।
ऐसा व्यक्ति सुख दुख के प्रभाव से रहित होता है।

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