न्याय प्राप्त करना प्रत्येक व्यक्ति का सार्वभौमिक अधिकार है। प्राचीन काल से ही सहज न्याय के सिद्धांत पर नीतिज्ञों द्वारा विशेष ध्यान दिया गया है तथा इसे निम्नतम वर्ग तक सुलभ व पहुंच लायक बनाने के लिए हर संभव कोशिश की गयी है। स्वतंत्रता के पश्चात संविधान निर्माताओ ने भी इस पर ध्यान देते हुए कमजोर व अक्षम वर्ग के लिए विधिक सहायता हेतु विशेष प्रावधान किये है जो की राज्य के नीति निद्रेशक तत्वों में परिलक्षित होता है। हालाँकि संविधान विधिक सहायता को मौलिक अधिकारों के अंतर्गत शामिल नहीं करता किन्तु जैसा की कई मामलो में सविधान की व्याख्या करते समय न्यायाधीशों द्वारा कहा गया है कि -
''गरीबो व जररूतमन्दो को क़ानूनी सहायता देना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है जो की अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत जीवन के अधिकार का ही भाग है। ''
भारत में विधिक सहायता की स्थिति से संबंधित कुछ प्रमुख बिंदु निम्न प्रकार है-
''गरीबो व जररूतमन्दो को क़ानूनी सहायता देना व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है जो की अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत जीवन के अधिकार का ही भाग है। ''
भारत में विधिक सहायता की स्थिति से संबंधित कुछ प्रमुख बिंदु निम्न प्रकार है-
- क़ानूनी सहायता प्रदान करने की सवैधानिक बाध्यता अनुच्छेद 14 ,19 व 39 क में मिलती है।
- सरकार वित्तीय व प्रशासनिक अक्षमता दिखाकर गरीब दोषी व्यक्ति को मुफ्त क़ानूनी सहायता प्रदान करने के अपने दायित्व को नजरअंदाज नहीं कर सकती।
- सरकार द्वारा अनुच्छेद 39 क के तहत क़ानूनी सेवा प्राधिकारी अधिनियम 1987 कानून लागु किया गया है
- राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण (नेशनल लीगल सर्विसेज अथॉरिटी) राष्ट्रीय स्तर पर क़ानूनी सहायता प्रदान करने वाला संविधानिक निकाय है जो की 1995 में अस्तित्व में लाया गया।
- इसी प्रकार राज्य स्तर पर भी राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण की व्यवस्था की गयी है।
- भारत के उच्चतम व उच्च न्यायलय के मुख्य न्यायाधीश क्रमश केद्रीय व राज्य स्तर पर संरक्षणकर्ता नियुक्त किया गए है।
- प्राधिकरण आवेदनो की जांच करता है तथा सही होने पर सम्बंधित पक्ष को राज्य के खर्च पर वकील प्रदान करता है तथा समस्त खर्च वहां वहन करता है।
- इसी प्रकार की व्यवस्था जिला व स्थानीय स्तर पर भी की गयी है।
- लोक अदालते भी वंचित वर्ग को क़ानूनी सेवा प्रदान करने के उद्देश्य से ही स्थापित की गयी है।
लोकतंत्र आधारित वर्तमान सरकारों का यह दायित्व है की वह आमजन को न्याय दिलवाने हेतु समुचित व्यवस्था करते हुए संबंधित अधिकारियो को उनके कार्य के लिए प्रतिबद्ध करे जिससे की समाज के पिछड़े व अधिकारहीन वर्ग को अन्याय से बचाया जा सके। ऐसा करके ही सच्चे लोकतंत्र की स्थापना हो सकती है।
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